'जितनी आबादी-उतना हक' अंग्रेजों की कूटनीति के समरूप : ई. आर.के. जायसवाल
साभार : सुमित कुमार राउत
बिहार राज्य की सरकार द्वारा बहुप्रतीक्षित जाति सर्वेक्षण के निष्कर्ष जारी होते ही देश में राजनीतिक दलों को विभिन्न मुद्दों के बीच एक नई दिशा मिल गई है। 'जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी' नीति अपनाने से देश और समाज को कितना फायदेमंद साबित होता कहा नहीं जा सकता, लेकिन एक बात तय है कि समाज के भाईचारे को खत्म कर विकासशील भारत को खंडित कर नाजुक मोड़ पर खड़ा कर देगा और फिर सर्वनाश से कोई नहीं रोक सकता। कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों द्वारा इसे नया चुनावी शिगूफा तो कोई अनैतिक बताते हुए संविधान की भावना के विरुद्ध बताया। वहीं अंग्रेजों की कूटनीति मंत्र 'फूट डालो और शासन करो' के बिल्कुल समरूप है और यह शायद उसी से प्रेरित होकर हम सभी के सामने रखा गया है। कई अन्य देश अपनी राष्ट्रीय आबादी की गणना और दस्तावेजीकरण करने के लिए नियमित जनसंख्या और आवास जनगणना करते हैं और अपनी विकास योजना बनाने के लिए प्राप्त जानकारी का उपयोग करते हैं। भारत में जनगणना की शुरुआत वर्ष 1881 के औपनिवेशिक अभ्यास के साथ हुई। जनगणना का उपयोग सरकार, नीति निर्माताओं, जन्म और मृत्यु दर, भौगोलिक वितरण, साक्षरता, संसाधनों का पहुँच, सामाजिक परिवर्तन की रूपरेखा तय करने और परिसीमन अभ्यासों के लिये किया जाता रहा है। भारत की पहली जाति-आधारित जनगणना ब्रिटिश शासन काल के दौरान 1931 में कई गई थी और फिर 29 जून 2011 को पश्चिम त्रिपुरा जिले के हाज़ेमारा ब्लॉक के संखोला गाँव से शुरू किया गया था। कोई भी जातीय जनगणना या सर्वेक्षण आधारभूत बनाकर सकारात्मक बनाया जाएं तो बेहतर होगा, अन्यथा सामाजिक फूट से कोई नहीं रोक सकता।
हमारे भारत की पूर्व राष्ट्रीय विचारधारा पर गौर करें तो दो बातें सामने आती हैं ; पहली थी अर्थव्यवस्था और उद्योग धंधे को सरकार द्वारा नियंत्रण करना और दूसरी थी भारतीय बहुसंख्यकों को देश की प्रगति में हमेशा तत्पर रहना, वहीं अल्पसंख्यकों से तनावमुक्त सहयोग की अपेक्षा रखी गई थी। वहीं हमारे वर्तमान भारत की राष्ट्रीय विचारधारा की बात की जाए, तो सब का साथ सब का विकास और सबका हक एक समान वाली विचारधारा के साथ सनातन के मार्गचिह्नों पर चलकर हमारी लोकतंत्र शक्ति को कई अवधि से ऊंचाईयों को छू रही है।
एक परिणाम भी हमलोगों के समझ है, लेबनान एक खूबसूरत शहर के साथ साथ विकसित देश था, जहां सभी धर्मों के लोग एक साथ मिलकर रहते थे । देश की राजधानी बेरूत को मध्य पूर्व का पेरिस कहा जाता था। लेकिन विनाशकाले विपरीत बुद्धि कहावत सिद्ध हूई जब वहां कि सरकार ने विभिन्न जातीय समाज को एक समान बराबर लाभ, स्थिरता और भलाई के मद्देनजर एक नीति बनाई, जिसमें लोकसभा से लेकर निजी अधिकारों में जितनी आबादी उतनी भागीदारी के हिसाब से कोटा दिये जाएंगे और इसका परिणाम ऐसा हुआ कि विधेयक में किसी भी मुद्दा पर एक सहमति या समर्थन नहीं बन सकी और लेबनान देश के लिए एक लकवा साबित हुआ। वहां अलग अलग जातीय समाज में इस नीति के तहत लाभ उठाने के चक्कर में आपस में भिड़ गए और वहां आंतरिक जंग छिड़ गई और यह जंग पचीस साल तक चली।
देश के वर्तमान स्थिति एवं नीतियों को देखते हुए कहीं यहां भी ऐसा ना हो, इसलिए देश के सभी राजनीतिक दलों को इसपर प्रमुखता के साथ विचार करना चाहिए ; नहीं तो एक गतिशील भारत प्रभावित होगा ही वहीं प्रतिभावान और कठिन परिश्रम वाले लोगों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा । साथ ही देश पर ग्रहण लग जाएगा। देश में चुनाव तो आते-जाते रहेंगे, लेकिन देश को खंडित कर खत्म होने से बचाना चाहिए।
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